रविवार, 15 अप्रैल 2007

ब्रह्मराक्षस का शिष्य

मुखौटा नहीं है ये.. अन्दर का सत्य यही है.. दूसरों की नहीं कहता.. अपने गिरेबान के अन्दर का सच ऐसा ही कुछ बनता बिगड़ता दिखता है जैसा मुक्तिबोध अपनी कविता ब्रह्मराक्षस के इस अंश में बयान कर गये हैं.. ...

बावड़ी की उन घनी गहराईयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है ,
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूंज ,
हड़्बड़ाहट- शब्द पागल से
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए, प्रतिपल
पाप-छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने -
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा देह
हाथ के पंजे, बराबर ,
बांह-छाती-मुँह छ्पाछ्प
ख़ूब करते साफ,
फिर भी मैल
फिर भी मैल !!

और होंठों से
अनोखा स्तोत्र, कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार ,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचना के चमकते तार !!
उस अखंड स्नान का पागल प्रवाह...
प्राण मे संवेदना है स्याह !!